(वर्तमान संदर्भ में)
वर्तमान् में एक शिव शिष्य परिवार रूपी धार्मिक संस्था उठ खड़ी हुई है, जो कि गुरू- शिष्य परम्परा का विरोध नये सुर-ताल में कर रही है।
आज हमारा सत्य-सनातन हिन्दू धर्म पुनः एक पीड़ा झेलने को तैयार है, और यह पीड़ा कहीं बाहर से नहीं, बल्कि अपने ही लोग देने को तैयार हैं। इस परिवार के अनुसार वर्तमान में जो भी आध्यात्मिक गुरू हैं, वे सभी मक्कार, झुठे एवं शिष्यों के पैसों पर मौज करने वाले हैं। चलो कुछ हद तक मान लेते हैं, कि यह सही भी हो सकता है, परंतु सब के सब ऐसे ही हों, यह बिल्कुल गलत है। यह एक हताशा पूर्ण विचार है। इस विचार की तुलना हम उस व्यक्ति से कर सकते हैं, जो नौकरी के लिए दर-दर भटके, लेकिन नौकरी नहीं मिलने पर अपने मन को यह कह कर दिलासा देता है, ‘अरे, नौकरी में क्या रखा है, बस कुछ हजार रूपये ही न। इससे तो अच्छा गाँव में पान की दुकान ही है। कम-से-कम चैन की जींदगी तो है, जब मन करेगा दुकान खोलेंगे, नहीं तो दुकान बंद रखेंगे। मित्तल, अंबानी, टाटा या ओबेराय तो बिजनेस करके ही न अरबों में खेल रहे हैं, इत्यादि।
मैं जहाँ तक समझता हूँ, इस परिवार के निर्माता को वास्तव में किसी तंत्रज्ञ गुरू से पाला पड़ा ही न हो या यह व्यक्ति रावण या हिरण्यकश्यपु के समान महान् अभिमानी हो और देवाधिदेव को अपने गर्व की पूर्ति के रूप में इस्तेमाल कर रहा हो।
लोग कहते हैं कि पहले के गुरू बहुत चमत्कारी होते थे, और अब के गुरू तो बस केवल हांकने वाले।
मन का एक स्वभाव है कि यह भूतकाल के सुख-दुःख का विशलेषण करता है और भविष्य के सुखद सपने संजोता है। वर्तमान् की समस्याओं पर ध्यान ही नहीं देता। जिन शिर्डी के साईंबाबा के आज करोड़ों भक्त हैं, उनके प्रतिमा पर दूध, दही, घी टनों उझला जाता है, 22 करोड़ से निर्मित स्वर्ण सिंहासन बनाया जाता है, उन्हीं साईंबाबा को थोड़ा सा तेल मांगने पर एक बनिये ने धक्के दे कर गिरा दिया था। उन्हें मुठ्ठी भर समय से भोजन भी नसीब नहीं था और जीवन तो उनका गुदड़ों में ही बीता।
सिक्खों के दसों गुरूओं ने क्या कम दुःख झेला? जिन भगवान महावीर के मार्ग पर चलकर लोग परम कैवल्य पद प्राप्ति की इच्छा करते हैं, उनको क्या उस समय के लोगों ने कम पीड़ा दी? लोग तो उन पर कुत्ते तक छोड़ देते थे। बुद्ध को जहर रूपी शूकर का मांस तक दिया गया।
एक कहावत है - पानी पीजिए छान के, गुरू कीजिए जान के। इस एक वाक्य में जीवन का गूढ़ तत्व छिपा हुआ है। ऐसा न हो कि गुरू के रूप में हमें कोई गुरू घंटाल मिल जाए।
अब मैं जरा गुरू तत्व की व्याख्या कर दूं। गुरू शब्द दो मातृका अक्षरों के संयोग से बना है - ’ग’ और ‘र’। ‘ग’ अक्षर जहाँ अंधकार का प्रतीक है, वहीं ‘र’ अक्षर अग्नि तत्व का प्रतीक है। और इन दोनों वर्णों में ‘उ’ कार लग कर गुरू शब्द की रचना होती है। ‘’शब्द तीन वर्णों के मेल से बना है – अ, उ तथा म। ‘अ’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का प्रतीक है, तो ‘उ’ पालनकर्ता विष्णु का तथा ‘म’ संहारकर्ता रुद्र का।
इस प्रकार गुरू शब्द का अर्थ हुआ, जो हमें अज्ञानता रूपी अंधकार से ज्ञान रूपी प्रकाश की ओर ले चले। अज्ञानता जहाँ मृत्यु का द्योतक है, वहीं ज्ञान जीवन का। हमारे वेदों में भी कहा गया है - असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गम्य। मृत्योर्मा अमृतगम्य।
अर्थात् - हे परमपिता परमेश्वर! हमें असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर तथा मृत्यु से जीवन (अमृत प्राप्ति) की ओर ले चलें।
कबीरदास जी भी, जिन्होंने बहुदेववाद, मूर्ति पूजा, तीर्थ, व्रत-उपवास, नमाज का कठोर विरोध किया, उन्होंने भी गुरू की महिमा वर्णन् में कोई कसर न छोड़ी। उन्होंने गुरू की महिमा तो ईश्वर से भी बढ़कर कर दी है -
गुरू गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पांव। बलिहारी गुरू आपने, गोविंद दियो बताय।।
कबीरदास जी तो यह शीष देकर भी गुरू प्राप्ति करने को महंगा सौदा नहीं कहा है -
यह तन विष की बेलरी, गुरू अमृत की खान। शीष दियो जो गुरू मिलो, तो भी सस्ता जान।।
इस पद की विषेष व्याख्या मैं तांत्रोक्त भाषा में आगे करूंगा। श्री कबीरदास ने गुरू की महिमा का बखान करने में प्रकृति को भी असमर्थ कहा है, देखिये इस पद में -
सब धरती कागज करूं, लेखन सब वन राय। सात समुद्र की मसी करूं, गुरू गुण लिखा न जाय।।
इस भारत भूमि का कण-कण गुरूमय है। यहाँ की प्रत्येक नदी गंगा। राम यहाँ के प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में विराजते हैं। सीता का सतीत्व प्रत्येक नारी का आदर्श यहाँ का हर नटखट बालक कन्हैया है और इठलाती बालिका राधिका। मीरा यहाँ के प्रत्येक स्वर कोकिला के कंठ में तो तुलसीदास प्रत्येक विद्वानों के मानस में।
हम भारतवासियों का यह सौभाग्य है कि समय-समय पर ईश्वरीय शक्ति ने यहाँ गुरू के रूप में अवतार लेकर भारत भूमि की यहाँ के धर्म की रक्षा की है। यह हम भारत वासियों के लिए गर्व की बात है कि हम किसी के नाजायज संतान को एकमात्र ईश्वर पुत्र न मानकर कण-कण में भगवान को देखते हैं। हमारे लिए मिट्टी भी त्याज्य नहीं, और पर्वत भी पूज्य।
प्राचीन भारत में एक गाली दी जाती थी – ‘निगुरा’, अर्थात् गुरूहीन या बिना गुरू का। वर्तमान् में जो महिलायें गाली देती हैं - निगोड़ा या निगोड़ी, इस निगुरा शब्द का ही अपभ्रंशात्मक रूप है।
पहले के समय में निगुरा शब्द किसी को कह देने पर वह बहुत बुरा मानता था और मरने-मारने पर तक उतारू हो जाता था।
उस बच्चे की दुर्दशा देखिये जो अनाथ है। माता-पिता जिसके मर चुके हैं, और कोई अभिभावक भी नहीं। हर कोई उसे ताना देता है, और कुत्ते जैसा व्यवहार करता है। गली के कुत्ते को तो देखिए, जिसका कोई मालिक नहीं। जो भी आता है, उसे ढेला मारता है, लात मार कर जाता है। बस यही बात हमारे आध्यात्मिक जीवन में भी है। धर्म मनुष्य का प्राण है। संसार के प्रत्येक सभ्यता में धर्म किसी न किसी रूप में विद्यमान है। जिस व्यक्ति का कोई गुरू नहीं होता, अर्थात् आध्यात्मिक जगत में वह अनाथ है, उसे समस्त दैविक या आसुरी शक्तियाँ या प्राकृतिक शक्तियाँ अपना ग्रास बनाने को चल पड़ती हैं। अरे देखो, इस व्यक्ति का कोई गुरू नहीं, यह गुरू कवच हीन है। गुरू नहीं तो इष्टदेव क्या प्राप्त होंगे, चलो इसका भक्षण करें। ग्रह, देव, भूत-प्रेत, इतर योनियाँ, अधर्म, यम सभी उस जीव को ग्रसने चलते हैं। यह मानव देह सभी के आकर्षण का केंद्र है। सभी कर्म इसी पर संपादित होते हैं। ज्योतिष शास्त्र तो केवल नौ ग्रहों तक ही सीमित है, पर तंत्र शास्त्र अनेक ग्रहों की व्याख्या करता है - भूत ग्रह, प्रेत ग्रह, देव ग्रह, राक्षस ग्रह, सौर ग्रह, नक्षत्र ग्रह, शक्ति ग्रह, रूद्र ग्रह, भैरव ग्रह इत्यादि। ग्रह कौन, जो दूसरे को ग्रस ले, वह ग्रह है। और जैसे ही व्यक्ति किसी उच्च कोटि के तंत्रमार्गी गुरू से दीक्षित होता है, समस्त नकारात्मक शक्तियाँ भाग खड़ी होती हैं। जो कल तक उसके शत्रु बने थे, वही मित्र हो जाता है, सहायक बन जाता है। और यह सब चमत्कार होता है, प्रबल गुरू शक्ति के कारण। कल तक जो दैत्य समाज उपेक्षित था, आज वही शिव का रावण के गुरू के बन जाने के कारण त्रिलोक विजेता हो गए।
इस समय विश्व के तीन सबसे बड़े विश्वविद्यालय हैं - अमेरिका का शिकागो में हॉबर्ड यूनिवर्सिटी तथा लंदन का ऑक्सफोर्ड एवं कैम्ब्रीज। इन तीनों से जो विद्यार्थी निकलते हैं, उन्हें एक बार नोबेल या समकक्ष पुरस्कार अवश्य प्राप्त होते हैं। प्रत्येक उच्च कोटि के विद्यार्थी की अवश्य इच्छा होती है, इन विश्वविद्यालयों में एक बार किसी प्रकार दाखिला मिल जाए। पर कितने विद्यार्थी ऐसे होते हैं, जिनका दाखिला इनमें होता है। इनकी छोड़िये, अपने राज्य के सबसे अच्छे विश्वविद्यालय में या स्कूल तक में तो अधिकतर विद्यार्थियों का दाखिला नहीं हो पाता। जब मानव द्वारा निर्मित संस्था में सभी का प्रवेश संभव नहीं, योग्यता का उचित मापदंड पूरा न कर सकने की स्थिति में प्रवेश बंद है तो क्या वास्तविक आध्यात्म की दुनिया में बिना कोई उचित गुरू के मार्गदर्षन के अभाव में प्रवेश मिल सकेगा? जब बच्चा पढ़ने के लिए बैठता है, तो शिक्षक उसे हाथ पकड़कर लिखने-पढ़ने के लिए सिखाता है। बच्चा बार-बार गलतियाँ करता है और शिक्षक उन गलतियों को सुधारते हैं। बाजार में तो अनेक पुस्तकें हैं, लेकिन क्यों किसी शिक्षक या प्रोफेसर द्वारा व्याख्या की आवष्यक्ता पड़ती है।
जब सांसारिक ज्ञान प्राप्ति में यह हालत है, बार-बार नाव डगमगाती है, तो भला उस अलौकिक ज्ञान में क्या हालत होगी, जिसे प्रारम्भिक अवस्था में तो न आंखें देख पाती हैं, और न कान ही सुन सकते हैं। केवल सुनी-सुनाई बातों पर ही विश्वास करके आगे बढ़ा जाता है। पानी दिख भी नहीं रहा और नाव भी उतारनी पड़ती है। यह निश्चित जान लो कि इस शरीर को शिक्षा एक शरीर रूपधारी गुरू ही दे सकता है।
और क्या शिव तक पहुंचना इतना ही आसान है, जरा अपने धर्मग्रंथ तो खोलकर देखें। परशुराम को तो गणेश से युद्ध करना पड़ा। गणेश का एक दांत खण्डित हो जाने पर उन्हें माता शक्ति का प्रकोप भी झेलना पड़ा, तब कहीं जाकर भोलेनाथ आए। रावण को नंदी से युद्ध करना पड़ा, कैलाश को उठाना पड़ा, शिव ताण्डव स्तोत्र की रचना की, तब कहीं जाकर भगवान शिव के दर्शन हुए। दस बार सिर काटकर अग्निकुण्ड में समर्पित किया, तब कहीं जाकर भोलेनाथ का आत्मलिंग प्राप्त कर सकने में सफल हुआ। लेकिन फिर भी वह लंका ले जाने में सफल नहीं हो पाया। तो क्या आपमें रावण या परशुराम जैसा पराक्रम या तेजस्विता है, जो चले हैं, शिव को गुरू बनाने।
ब्रह्मा जी भी सृष्टि के प्रारंभ में हतप्रभ हो रहे थे, कि किस प्रकार सृष्टि की रचना संपन्न करूं? उन्होंने शिव से सहायता मांगी। शिव ने अपना अनंत स्वरूप प्रकट कर दिया। ब्रह्मा जी और भी आष्चर्य में पड़ गए, भला शिव के किस स्वरूप को ले कर सृष्टि की रचना संपन्न करूं। ये तो अनंत है। तभी शिव में से प्रकट शिवा बोल उठी – ‘हे ब्रह्मा! तु शिव के चक्कर में मत पड़े। ये अनंत हैं, तुझे जितना जरूरत है, उतना ही ले।“
ब्रह्मा जी ने शक्ति की आज्ञा शिरोधार्य कर उनमें से उनकी शक्ति शिवा को प्राप्त कर मैथुनी सृष्टि की रचना प्रारम्भ की। जब ब्रह्मा जी का यह हाल है, तो अन्य की बात ही क्या? और आप कितने पानी में हैं, जो चले हैं, शिव को गुरू बनाने। और एक सवाल पूछता हूँ, कि क्या शिव आज ही आए हैं, जो उनको चले हैं, गुरू बनाने। क्या वे राम, कृष्ण या शंकराचार्य के समय में नहीं थे, जो भगवान राम ने वषिष्ठ ऋषि को गुरू बनाया। राम जी के तीन गुरू हुए – वशिष्ठ, विश्वामित्र और अगस्त्य ऋषि। परमयोगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सांदिपनी मुनि से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। और तो और साक्षात् रूद्रावतार हनुमान जी ने भी सूर्य वंश के एक प्रमुख सूर्य उपासक ब्राह्मण से ही ज्ञान प्राप्त किया था, न कि शिव से। देवताओं के गुरू बृहस्पति हुए और दैत्यों के शुक्राचार्य। संपूर्ण भारत वर्ष से बौद्ध धर्म का उन्मूलन कर देने वाले शंकराचार्य जी, जिन्हें साक्षात् शंकर का अवतार माना जाता है, ने भी गौड़पादजी जी से दीक्षा ग्रहण की थी। जब ये सभी महानुभाव किसी शरीरधारी व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं, तो आप खुद को कहाँ तौलते हैं?
जब-जब इस राष्ट्र पर संकट आया, तब-तब किसी गुरूशक्ति ने ही राष्ट्र एवं धर्म की रक्षा की। मैं मानता हूँ कि सभ्यता के विकास काल में शिव प्रथम गुरू हुए। उन्होंने ही निगम को आगम बनाया। तंत्र शास्त्र की रचना की। नटराज बन नृत्य कला का विकास किया तो नाद ब्रह्म की भी रचना की। हजार श्लोंको वाला कामशास्त्र की भी रचना की तो परममोक्ष की प्राप्ति हेतु उच्च समाधि अवस्था का भी निर्माण किया। भारत भूमि की प्यासी धरती को स्वर्ग से गंगा भी लाकर दिया। घोर हलाहल भी पी गए तो छः हाथों से अमृत भी प्रदान किया। तो क्या अब जब आप बीमार पड़ते हैं, तो आयुर्वेद के जनक धनवन्तरी को या होम्योपैथ के आविष्कारक सैमुएल हैनमेन के पास जाते हैं या निकट के किसी डॉक्टर के पास। जब शिव रूद्र रूप में इस धरती पर सशरीर विराजमान थे, तो उन्होंने हमेशा इस धरती की रक्षा की और वे अब किसी-न-किसी गुरू या महायोगी के रूप में बार-बार अवतरित हो रहे हैं।
‘कृष्णं वन्दे जगदगुरू’ सारे संसार को कर्मयोग की शिक्षा किसने दी। भगवान श्री कृष्ण ने। जब संपूर्ण भारत युद्ध की विभिषिका में जल रहा था तो सत्य-अहिंसा का पाठ किसने पढ़ाया - भगवान बुद्ध ने। परम कैवल्य पद का सिद्धांत भगवान महावीर ने दिया। तो वहीं जब सारे भारतवर्ष में वैदिक परम्परा का विरोध हो रहा था, बुद्ध के पावन संदेशो को तोड़-मरोड़कर नव बौद्ध मतावलम्बी प्रस्तुत कर रहे थे, तो संपूर्ण भारतवर्ष से बौद्ध धर्म का उन्मूलन किसने किया - आदि शंकराचार्य ने, और उन्होंने भारत के प्रत्येक दिशाओं में वैदिक धर्म के पालन एवं गुरू परम्परा के निर्वहन हेतु मठों की स्थापना की। और ये शंकराचार्य जी भी ने सबसे पहले किसी मानव को ही गुरू बनाया। अगर ये शंकराचार्य जी न होते तो ये नये-नये शिव के शिष्य बुद्ध शिष्य परिवार की रचना कर रहे होते।
महान राम भक्त गोस्वामि तुलसीदास जी ने भी श्री हनुमान जी से प्रार्थना करते हुए, उन्हें गुरू की तरह कृपा करने को कहा है, न कि किसी शिव, विष्णु, ब्रह्मा या इन्द्र की तरह।
जै जै जै हनुमान गुसाईं, कृपा करहु गुरूदेव की नाई।
ब्रह्मा सृष्टि कर देंगे, विष्णु शस्त्र ले उपस्थित हो जायेंगे आसुरी शक्तियों से रक्षा हेतु, लक्ष्मी प्रदान कर देंगे, इन्द्र वर्षा कर देंगे, रूद्र संहार कर देंगे, तो शिव समस्त शक्तियों की अनुभूति करा देंगे, वहीं दुर्गा दुष्टों का मर्दन कर देगी। पर ये सभी शक्तियाँ एकांगी हैं। तो वह कौन-सी शक्ति है, जिसमें ये सभी तत्व मौजूद हों। तो वह शक्ति है - गुरू की शक्ति, जो ब्रह्मा की तरह सृजन करे, विष्णु की तरह पालन करे और रूद्र की तरह अज्ञानता का संहार करे।
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